बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 60)

तेल के दिन डोमों के विकट वाद्य से गाँव गूँज उठा। बिल्लेसुर के अदृश्य वैभव का सब पर प्रभाव पड़ा।


 पड़ोस के ज़मीन्दार ठाकुर तहसील से लौटते हुए दरवाज़े से निकले। बिल्लेसुर को देखकर प्रणाम किया। 

कारूँ के खज़ाने की सोचकर कहा, "लोगों की आँख देखकर हम कुल भेद मालूम कर लेते हैं। 


ब्याह करने जा रहे हो, हमारा घोड़ा चाहो तो ले जाओ।" बिल्लेसुर ने राज़ दबाकर कहा, "हम ग़रीब ब्राह्मण, ब्राह्मण की ही तरह जायँगे। आप हमारे राजा हैं, सब कुछ दे सकते है।" 

ठाकुर साहब यह सोचकर मुस्कराये कि खुलना नहीं चाहता, फिर प्रणाम कर बिदा हुए।

मातृपूजन के दूसरे दिन बरात चली। 

कुआ पूजा गया। दूध बिल्लेसुर की एक चाची ने पिलाया। 

पैर लटकाये देर तक कुएँ की जगत पर अड़ी बैठी रहीं। 


पूछने पर कहा, "सोने की एक ईंट लेंगे।" 

बिल्लेसुर समझकर मुस्कराये। गाँववालों ने कहा, "बुरा नहीं कहा, आखिर और किस दिन के लिये जोड़कर रक्खा गई हैं?" बिल्लेसुर ने कहा, "चाची, यहाँ तो निहत्था हूँ। 

पैर निकालो, लौटकर तुम्हें ईंट ही दूँगा।" चाची खुश हो गईं। गाँववालों के मुँह पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। 

उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि बिल्लेसुर के सोने की पचासों ईंटें हैं।

बरात निकली। 

अगवानी, द्वारचार, ब्याह, भात, छोटा-बड़ा आहार, बरतौनी, चतुर्थी, कुल अनुष्ठान पूरे किये गये। वहाँ इन्हीं का इन्तज़ाम था। 

मान्य कुल मिला कर पाँच। बाक़ी कहार, वाजदार, भैय्याचार। 

चार दिन के बाद दूल्हन लेकर बिल्लेसुर घर लौटे। 

फिर अपने धनी होने का राज़ जीते-जी न खुलने दिया।

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